Tuesday, July 13, 2010

सामाजिक स्वीकृति का सवाल

विनीत खरे
बीबीसी संवाददाता, मुंबई

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एक साल पहले दिल्ली हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फ़ैसले में कहा कि दो मर्द या औरत अगर अपनी सहमति से बंद कमरे के भीतर यौन संबंध बनाते हैं तो ये अपराध नहीं है.

क्या इस फ़ैसले के एक साल बाद समलैंगिकों को लेकर समाज की सोच में परिवर्तन आया है?

इस फ़ैसले को भारत के समलैंगिकों के लिए भारी सफलता माना गया, लेकिन विभिन्न धार्मिक संगठनों ने इसका विरोध किया. मामला अभी सुप्रीम कोर्ट में है.

मिलिए हरीश अय्यर से. जब वो छोटे थे तब उनके एक रिश्तेदार ने कई वर्षों तक उनका शारीरिक शोषण किया. उन्होंने ये बात अपने स्कूल में एक साथी को बताई, तो पूरे स्कूल में बात फैल गई.

वो कहते हैं, "सभी बच्चों को लगा कि मैं अपने रिश्तेदार के साथ सो कर आया था. स्कूल की दीवारों पर लिख दिया गया कि समलैंगिक यौन संबंध के लिए हरीश से संपर्क करें. सहानुभूति की जगह मुझे दुर्व्यवहार मिला. चलता था तो लोग पीछे हंसते थे. उस वक्त मुझे नहीं पता था कि मैं समलैंगिक हूँ कि नहीं. लोगों का व्यवहार इतना खराब था कि मैने आत्महत्या तक करने की सोची."

ये कहानी सिर्फ़ हरीश की ही नहीं, बल्कि उनके जैसे कई दूसरे समलैंगिकों की भी है जिन्हें हर कदम पर सामाजिक तिरस्कार का सामना करना पड़ता है.

लोगों को कैसे समझाया जाए कि उम्र बढ़ने के दौरान ये नहीं समझ पाना कि आप पुरुष हैं या औरत कितनी कश्मकश की स्थिति है. व्यक्ति अपने आप से ही लड़ता रहता है और उसे समाज के बनाए बंधनों में नहीं चाहकर भी रहने को मजबूर होना पड़ता है.

हरीश ने जब अपने समलैंगिक होने की बात अपनी माँ को बताई तो उम्मीद के मुताबिक उन्हें विश्वास नहीं हुआ, लेकिन बात में उन्हें ये बात माननी पड़ी. उनकी माँ पद्मा विश्वनाथन कहती हैं कि उनके परिवारवालों ने शुरुआत में सोचा कि हरीश भी जल्द शादी कर लेगा, लेकिन ऐसा नहीं हुआ.

वो मुस्कुराते हुए कहती हैं, "हरीश मुझे वो सब कुछ बताता है जितना वो बताना चाहता है. अगर उसे कोई लड़का अच्छा लगता है तो वो कभी-कभी मुझे बताता है."

समलैंगिकों के लिए आज भी सबसे बड़ी चुनौती है समाज में स्वीकार्यता. कानून की धारा 377 जैसे उनके सिर पर लटकती हुई तलवार जैसी थी.

मामला सुप्रीम कोर्ट में

हालांकि मामला अभी सुप्रीम कोर्ट में है, ये कहना गलत होगा कि तलवार सिर से हट गई है.

दिल्ली उच्च न्यायालय के फ़ैसले के एक साल पूरे होने पर मुंबई के आज़ाद मैदान पर एक रैली का आयोजन किया गया. वहाँ लोग तरह-तरह के रंगीन कपड़े पहन कर आए थे.

थोड़ी दूर पर खड़े इस रैली को देखने वाले कुछ लोगों का कहना था कि समलैंगिक धर्म के विरुद्ध काम कर रहे हैं और वो समाज के लिए सिरदर्द बन गए हैं. हालांकि वो मानते थे कि समलैंगिकों और हिंजड़ो के साथ किया जाने वाला बर्ताव ठीक नहीं है. उनकी माने तो ये पश्चिमी सभ्यता का असर भी है जो लोग समलैंगिक हो रहे हैं.

यानि समाज की सोच में कितना परिवर्तन हो रहा है, या हुआ भी है कि नहीं, इस पर विचार बंटे हैं. इसी रैली में मौजूद राजपीपला के राजकुमार और कार्यकर्ता मानवेंद्र सिंह गोहिल का कहना था कि क्षेत्रीय भाषा लोगों को समझाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं. उनका कहना था कि ये एक क्षेत्रीय अखबार ही था जिसने पहली बार उनकी कहानी छापी थी कि वो समलैंगिक हैं.

किताबों की कमी

यानि मानवेंद्र की माने तो लोगों में मुद्दे पर बहस ज़रूर हो रही है. समाचार माध्यम इस मुद्दे को घर-घर तक पहुँचा रहे हैं. लेकिन अभी भी देश में समलैंगिकों से जुड़ी किताबों की कमी है.

अरुण मीरचंदानी ने समलैंगिकों पर किताब लिखी है जिसका नाम है यू आर नॉट अलोन, यानि आप अकेले नहीं हैं. ये एक समलैंगिक व्यक्ति के संघर्ष की कहानी है और लेखक के मुताबिक लोगों में ज़िंदगी के प्रति उम्मीद जगाती है. अरुण कहते हैं दिल्ली हाइकोर्ट के फैसले के बाद इस मुद्दे पर लोगों में जागरुकता बढ़ी है और समलैंगिक अपने अधिकारों के प्रति सजग हुए हैं.

लेकिन अरुण कहते हैं कि अभी भी लोग खुलेआम दुकानों में उनकी किताब खरीदने में डरते हैं, कि कहीं उन्हें समलैंगिक विषय से जुड़ी किताब पढ़ते कोई देख न ले.

ऐसे ही लोगों के लिए वेबसाइट क्वीयरलिंक डॉट कॉम वेबसाइट की शुरूआत की गई है. इस वेबसाइट की शुरुआत की है शोभना कुमार ने. ये भारत की पहली वेबसाइट है जिस पर समलैंगिकों से जुड़े मुद्दों पर किताब मिल सकती है.

शोभना कहती हैं कि पहले हर हफ़्ते करीब 10 किताबें ही बिका करती थीं, अब हर दिन करीब पाँच किताबें बिकती हैं. इन किताबों में समलैंगिकों से जुड़ी समस्याएँ, उनका दर्द, कविताएं जैसी बातें होती हैं. साथ ही ये कि अगर वो दुनिया को वो बताना चाहते हैं कि वो भी समलैंगिक हैं, तो वो ये बात लोगों से कैसे कहें.

वकील आनंद ग्रोवर कहते हैं, "सबसे पहले सुप्रीम कोर्ट में हमारी जीत होनी चाहिए. उसके बाद कई छोटी-छोटी लड़ाइयाँ हैं. बच्चे गोद लेना, शादी कर पाना, जैसे मुद्दों पर अभी लड़ाई बाकी है. आम लोग हमारे विरोध में नहीं हैं. आपको उन्हें समझाना होगा."

मुंबई में समलैंगिकों के लिए भारत का पहला स्टोर भी खुला है जहाँ लोग बिना किसी हिचकिचाहट के टी शर्ट्स, किताबें और दूसरे सामान खरीद सकते हैं.

इसके अलावा दिल्ली में समलैंगिकों के लिए ट्रैवेल बुटिक भी खुला है जिसकी मदद से समलैंगिक भारत के विभिन्न इलाकों की सैर पर भी जा सकते हैं. यानि वक्त के साथ-साथ परिस्थितियाँ बदल रही हैं, लेकिन अभी भी एक लंबी लड़ाई बाकी है.

-- BBC Hindi

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